कश्मीर: जेल में बीती जवानी फिर सुबूत के अभाव में रिहा रियाज़ मसरूर बीबीसी संवाददाता, श्रीनगर 25 जुलाई 2019 इस पोस्ट को शेयर करें Facebook इस पोस्ट को शेयर करें WhatsApp इस पोस्ट को शेयर करें Messenger साझा कीजिए इमेज कॉपीरइट GETTY IMAGES जवानी, ज़िंदगी का वो पड़ाव जब शरीर में कुछ करने का जज़्बा तो होता ही है उसे पूरा करने की ताक़त और ऊर्जा भी होती है. लेकिन अगर किसी की जवानी जेल की दीवरों के भीतर क़ैदी बनकर गुज़र जाए, फिर दो दशक बीतने के बाद एक दिन उन्हें रिहा कर दिया जाए और बताया जाए कि पर्याप्त सुबूत नहीं मिले, इसलिए उन्हें रिहा किया जाता है. ऐसा ही हुआ 49 साल के मोहम्मद अली भट्ट, 40 साल के लतीफ़ वाज़ा और 44 साल के मिर्ज़ा निसार के साथ. अपनी पूरी जवानी जेल में बिताने के बाद मोहम्मद अली भट्ट, लतीफ़ वाज़ा और मिर्ज़ा निसार को सुबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया. इन सभी को दिल्ली के लाजपत नगर और सरोजिनी नगर में साल 1996 में हुए बम धमाकों में शामिल होने के शक में पुलिस ने हिरासत में लिया था. लेकिन उनके ख़िलाफ़ सुबूत नहीं थे और इसल...